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शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम १० : पृथु, विजितश्व हविर्धन बहिर्षत प्रचेता और दक्ष प्रजापति का पुनर्जन्म

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पृथु के राज्य संस्कार के बाद उन्होंने धर्मपूर्वक राज्य करना आरम्भ किया।  वेण के अधर्मपूर्ण राजयकाल और उसके बाद राज्य में कोई राजा न होने से उनके राज्य का हाल बहुत बुरा था और राज्य के लोग दरिद्र और भूखे थे।  प्रजाजन राजा के पास आये और कहा कि हमारे भोजन की व्यवस्था कीजिये।  राजा को पता चला कि धरती बीज निगल लेती है किन्तु अन्न नहीं देती।  क्रोध में उन्होंने धरती का वध करने की ठानी और वाण संधान किया।  धरती भय से गौ रूप लेकर भागी - और राजा ने गौ का पीछा किया।

भयभीत धरती ने कहा - यदि आप मुझे मार देंगे तो आपकी प्रजा कहाँ रहेगी ? पृथु ने कहा मैं अपने योगबल से उनके लिए स्थान की व्यवस्था कर दूंगा। धरती ने कहा मैं धरती हूँ, स्त्री हूँ और अभी गौ रूप में हूँ।  इन तीनों ही कारणों से आपको मेरी रक्षा करनी चाहिए न कि मुझे मारना चाहिए।  पृथु ने कहा कि मैं प्रजापालक राजा हूँ।  तुम मेरे प्रजाजनों का हक़ उन्हें नहीं दोगी तो तुम्हारे वध में मुझे कोई पाप नहीं।

तब धरती ने कहा कि मैंने सब अपने भीतर इसलिए छिपा लिया कि मेरी भेंटों का अधर्मी कलुषित कार्यों के लिए उपयोग कर रहे हैं।  आज मैं गौ रूप हूँ - आप मेरे दुहे जाने का प्रबंध करें और बछड़े की व्यवस्था करें तब मैं दुग्ध की तरह वह सब दूँगी जो दुहने वालों की अभिलाषा होगी।

तब पृथु ने मनु को बछड़ा बना कर अपनी प्रजा के लिए अन्न पौधे आदि पाये।
ज्ञानियों ने बृहस्पति को बछड़ा बनाया और वेद दुहे;
देवताओं ने इंद्र को बछड़ा बनाया और सोम, वीर्य, ओज और बल पाया;
दैत्यों और दानवों ने प्रह्लाद को बछड़ा बनाया और सुरा पायी;
यक्ष राक्षस भहूत और पिशाचों ने रूद्र को बछड़ा बना कर रक्तमिश्रित मदिरा पायी;
रेंगने वाले जंतुओं ने तक्षक को बछड़ा बना कर विष पाया ;
गौओं ने बैल को बना कर घास और दूब पायी।
पर्वतों ने हिमवान को बछड़ा बना कर रत्न आदि पाये
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और सभी समूहों ने अपने में से सर्वश्रेष्ठ को बछड़ा बना कर मनमांगी वस्तुएं पायीं।

धरती ने सबकी मनोकामना पूरी की और प्रसन्न हो कर पृथु रुपी नारायण ने, धरती को, अपनी पुत्री स्वीकारा।  तब से धरती "पृथ्वी" कहलायीं।

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एक बार पृथु महाराज ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया।  ९९ यज्ञ पूरे हुए।  इंद्र सौ अश्वमेध कर के इंद्र बने थे तो वे चिंतित हो गए कि अब पृथु इंद्र हो जाएंगे।  तो इंद्र साधू का झूठा वेश बना कर अश्व चुरा ले गए।  इंद्र का उस वेश में नाम था - पाषण्डी (पाखंडी?) . पृथु के पुत्र ने अश्व चुराने वाले का पीछा किया और पकड़ लिया। लेकिन इस रूप को देख साधू समझ कर बिना किसी सजा के वापस आ गए।  तब मुनियों ने उन्हें बताया कि वह साधू नहीं बल्कि , चोरी के मन से आया इंद्र है - तब राजकुमार ने वापस जा कर इंद्र से अश्व वापस ले लिया और उन्हें जाने दिया।  ऐसा कई बार हुआ। तब राजकुमार का नाम "विजितश्व " हो गया। तब इंद्र के इस प्रपंच से उनकी देखा देखी बहुत से पाखंडी साधू धरती पर विचरण करने लगे।

बाद में क्रोधित होकर पृथु इंद्र का वध करने का मन बनाया , किन्तु यज्ञ करा रहे ब्राह्मणों ने कहा कि आप यज्ञ के यजमान हैं - आपका क्रोधित होना यज्ञ को दूषित करेगा।  हम ऐसे मंत्र पढ़ेंगे कि इंद्र को यहां आना ही पड़ेगा और आप इंद्र की बलि दे दीजियेगा।  इस पर यज्ञ कुण्ड से ब्रह्मा प्रकट हुए और पृथु से कहा यह उचित नहीं।  इंद्र भी नारायण का अंश हैं और आप भी नारायण के अवतार। वे समझ रहे हैं कि आप उनके सिंहासन के लिए यह सब यज्ञ आदि कर रहे हैं , जो सत्य नहीं है ।  आप उन्हें क्षमा कर दें।  इंद्र ने भी आकर क्षमा मांगी। तब पृथु ने उन्हें क्षमा कर के गले से लगा लिया।

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समय होने पर पृथु ने अपना राज्य पुत्र विजितश्व को सौंपा और अपनी संगिनी आर्चिस जी (पिछले भाग में देखें ) के साथ वन को चले गए। समय आने पर उन्होंने शरीर त्याग और उनके साथ  ही उनकी पत्नी सती हो गयीं। विजितश्व ने लम्बे समय राज्य किया।  उनके पुत्र हविर्धन (जिनकी पत्नी थीं हविर्धनी) को राज्य / सत्ता आदि में रूचि नहीं थी और वे ईश्वर को पाना चाहते थे।  हविर्धनी के छः पुत्र होने के बाद हविर्द्धन ने सन्यास ले लिया।  इनमे बड़े पुत्र थे बर्हिषत।

इन बर्हिषत की पत्नी हुईं शतद्रुति (सागर राज की पुत्री). कहते हैं वे इतनी रूपवती थीं कि विवाह के फेरों के समय अग्निदेव भी मोहित हो गए थे। इनके दस पुत्र हुए जो प्रचेता कहलाये।  पिता की आज्ञा से ये सागर के भीतर ही तप करने को गए। बर्हिषत कर्मकांड में बहुत लींन रहते थे और एक के बाद एक यज्ञ करते जाते थे।  एक दिन नारद ने आकर उन्हें समझाया कि यह सब कर्मकांड तुम्हे कर्मबंधन में ही बाँध रहा है - इससे मोक्ष नहीं होगा। जिन पशुओं को तुम इन यज्ञों में बलि कर रहे हो वे सब तुमसे प्रतिशोध के लिए इंतज़ार कर रहे हैं। नारद जी ने उन्हें पुरंजन की कथा सुनाई (अगले भाग में सुनाऊँगी यह कथा ) जिससे उन्हें अपनी गलती का भान हुआ।

इधर प्रचेता भाइयों का तप फल लाया और नारायण उमके पास प्रकट हुए।  उन्होंने बताया कि कण्डु ऋषि और प्रम्लोचा अप्सरा (जिसे उनका तप भंग करने भेजा गया था) की पुत्री है मरिषा(जो तार्क्षी भी कहलाती हैं)।  उसके जन्म के बाद उसकी अप्सरा माँ उसे त्याग कर स्वर्ग चली गयी और वन के वृक्षों (मरों ) ने उसे अपनी बेटी बना कर बड़ा किया।  उसीसे आपका विवाह होगा और आपकी संतान प्रजापति होगी। दसों प्रचेता भाइयों का उसी कन्या से विवाह हुआ और उनके पुत्र हुए दक्ष।  ये वही दक्ष प्रजापति हैं जो पहले सती के पिता थे और शिव का अपमान कर के अपनी पुत्री को खो चुके थे।  इनकी संतति की कथा पहले भागों में आ चुकी है। दक्ष के सन्यास लेने के बाद राज्य में कोई राजा न था (कथा आगे के भागों में)

जारी .......








4 टिप्‍पणियां:

  1. इन सब कथाओं का वास्तविक अर्थ क्या है अभी हम समझ नहीं पाए..फिर भी सुंदर कथाएं..

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  2. "मैं कवि हूँ सरयू तट का"

    मैं कवि हूँ सरयू तट का

    समय चक्र के उलट पलट का
    मानव मर्यादा की खातिर
    सिर्फ अयोध्या खडी हुई ।
    चक्र -कुचक्र चला कुछ ऐसा
    विश्व की ऑखें गडी हुई।
    जबकि सच है मेरी अयोध्या
    जाने हाल ;हर घट पनघट का।।


    पला- बढ़ा श्रीराम चरण मैं

    प्रतिपल मैं भी राहता रण में

    भीतर – बाहर किसके क्या है

    जान लेता हूँ क्षण मेँ

    झटका खा लेता हूँ लेकिन

    किसी को नहीं देता झटका

    समय चक्र के उलट पलट का

    मैं कवि हूँ सरयू तट का ||


    संत ऋषियों की हत्या ने

    अंत लिख दिया था रावण का
    समझा के शिव, उस पर कुपित हुए

    जग गया भाग्य, विभीषण का

    उसी की जीत सदा होती है

    जो है धैर्य और जीवट का

    समय चक्र के उलट पलट का

    मैं कवि हूँ सरयू तट का ||


    राम : लक्ष्मण – भरत-शत्रुघ्न

    सदा से पूजित रहे हमारे

    इन्हीं के यश से चमक रहे हैं

    गृह – नक्षत्र औ नभ के तारे

    श्र्द्धा और समर्पण मेँ बस
    करता नमन मैं केवट का

    समय चक्र के उलट पलट का
    मैं कवि हूँ सरयू तट का ||


    रावण, राज्य विभीषण चला
    श्रीराम जी, चरण गहा
    राम राज कैकेई रहकर
    वह निज स्वभाव में पली
    खल कर राजा दसरथ से
    श्रीराम को जंगल मढी।
    समय चक्र के उलट पलट का

    मैं कवि हूँ सरयू तट का ||

    माना सच हर घट-घट का
    शंका में खुला अट-पट था
    खोट आ पडी रिस्ते में
    दावानल दहका निज का।
    चक्र चला चर्चा परिचर्चा
    जल - जंगल कुचक्र बढा
    संतों का नव सत्र चला
    रावण का था अंत लिखा

    समय चक्र के उलट पलट का

    मैं कवि हूँ सरयू तट का |
    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    समय चक्र के उलट पलट का

    मानव मर्यादा की खातिर

    मेरी अयोध्या खड़ी हुई

    कालचक्र के चक्कर से ही

    विश्व की आँखें गड़ी हुई

    हाल ये जाने है घट -घट का

    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    गंधर्वों ने मिल किया गुणगान

    सिद्धों ने पुष्पवर्षा से बढ़ाया मान

    समवेत स्तुति ब्राह्मणों ने करके

    बांटा मुक्त मन से समुचित ज्ञान

    बटा ज्ञान भी टटका -टटका

    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    सूर्यवंश का उगा सितारा

    कुबेर – सिंहासन ,ब्रह्मा ले आये

    धरा-गगन औ रिद्धी -सिद्धि गाये

    सभी देवता मिल देखन आये

    मगन हुआ मन घट- पनघट का

    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    मनमोहक हरियाली छाई

    सकल अवध खुशहाली आई

    राजा पृथु का आना सुन

    ऋषियों की भी वाणी हर्षायी

    प्यासे को जैसे मिला हो मटका

    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    दिया विश्वकर्मा ने सुंदर रथ

    चंदा ने अश्व दिये अमृतमय

    सुदृढ़ धनुष दिया अग्नि ने

    सूर्य ने वाण दिये तेजोमय

    शत्रु को करारा दे जो झटका

    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    पृथु – अभिषेक का हुआ आयोजन

    वेदमयी ब्राह्मण ने किया अभिनंदन

    पृथ्वी -नदी -समुद्र -पर्वत -स्वर्ग -गौ

    उन्हें सबने उपहार किया अर्पण

    उपहार दिखे सब टटका – टटका

    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    ऋषियों की वाणी थी माधुरी

    अर्ति, शक्ति लक्ष्मी अवतार

    सुपथ विस्तार करने आये

    यशस्वी ‘पृथु ‘ पधारे महाराज

    आभा मे न लटका- झटका

    कवि हूँ मैं सरयू तट का

    अंग वंश के वेन – भुजा मंथन से

    हुआ प्रादुर्भाव पृथु और अर्ति का

    विदुर – मैत्रेय का सम्बाद सुनाया

    गंधर्वों ने सुमधुर गुणगान गाया

    समय चक्र के उलट पलट का

    कवि हूँ मैं सरयू तट का


    - सुखमंगल सिंह ,वाराणसी

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  3. इन कथओं को स्पष्ट रूप मे लिखा जाय ताकि हिंदू अपने अस्तित्व को जान सके, नकी confuse हो जाय/

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