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शनिवार, 19 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम १७ : इंद्र , त्वष्ठा जी के पुत्र विश्वरूप और वृटासुर

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कश्यप जी की एक पत्नी , दक्ष पुत्री दिति के दो पुत्रों के बारे में हमने पिछले दो भागों में पढ़ा। अब अदिति जी के पुत्रों की ओर देखते हैं। दक्ष की एक और पुत्री थीं अदिति जो कश्यप जी की ही संगिनी हैं। जहां दिति जी महाशक्तिवान असुरों की माता बनीं, वाही अदिति जी ने देवमाता होने का गौरव प्राप्त किया। अदिति जी के देवता पुत्रों ( सूर्य के बारे में देखने के लिए भाग आठ देखिये ) में दो प्रसिद्ध नाम हैं - उपेन्द्र (आगे इनकी कथा आएगी, ये वामन नाम से भी प्रसिद्ध हैं ) और इंद्र। इस भाग में इंद्र और वृटासुर का वर्णन है।

इंद्र देवताओं के राजा हो गये थे और स्वर्ग के सिंहासन पर आरूढ़ थे। उनका अहंकार बहुत बढ़ गया था और सिंहासन से मोह भी उन्हें बहुत था। यह मोह और अभिमान उन्हें अनेकों बार कई पापों में डुबाता रहा है।

स्वर्गाधिपति होने के मद में चूर इंद्रदेव एक बार अपनी सभा में बैठे थे। अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और गन्धर्व, किन्नर, सभी देवता, ११ रूद्र, ७ मारुत, १२ आदित्य आदि उपस्थित थे। तभी देवगुरु बृहस्पति जी वहां आये। उनके सम्मान में सभी उठ खड़े हुए किन्तु दंभ में डूबे इंद्र बैठे रहे। इस अपमान पर बृहस्पति जी ने कुछ क्षण इंद्र की तरफ देखा, फिर भी इंद्र को अपनी गलती का बोध न हुआ - तब बृहस्पति जी बिना कुछ बोले या कोई श्राप दिए वहां से मुड़ कर चले गए। उनके जाने के बाद इंद्र की समझ में आया कि कुलगुरु को अपमानित कर उन्होने कितना बड़ा अपराध कर दिया है। तब वे भागे भागे बृहस्पति जी से माफ़ी मांगने उनके घर पहुंचे, किन्तु गुरुदेव अंतर्धान हो चुके थे।

आग की तरह सब तरफ खबर फ़ैल गयी कि देवता अपने महान गुरु एवं सरक्षक को खो चुके हैं। यह जान कर असुरों ने तुरंत अपने गुरु शुक्राचार्य की मदद से स्वर्ग पर धावा बोल दिया और देवताओं को खदेड़ दिया। हमेशा की तरह देवता ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे उपाय माँगा। ब्रह्मा जी ने कहा - गुरुविहीन होकर आप कोई आस नहीं रख सकते। अपनेअभिमान में आपने बृहस्पति जी को खो दिया है।  अब आपके गुरु होने योग्य त्वष्ठा जी के पुत्र विश्वरूप जी ही हैं - आप उनकी ही शरण में जाइए। वे योग्य तो हैं किन्तु एक असुर होने के नाते उनका झुकाव असुरों के प्रति ही रहेगा, और यह आप लोगों को सहन करना होगा। तब इंद्र के नेतृत्व में देवगण विश्वरूप जी के पास गए और उनकी स्तुतियाँ गायीं। उन्हें अपना गुरु बनने के लिए सादर निमंत्रण दिया। इंद्र ने कहा कि उम्र में हमसे कम होते हुए भी आप ज्ञान में हमसे बहुत आगे हैं, इसलिए हम आपके चरणों को स्पर्श करते हुए आपसे अपने गुरु बनने की विनती करते हैं। तब विश्वरूप जी ने इंद्र की विनती स्वीकार कर ली और उनके गुरु बने।

विश्वरूप जी ने ही इंद्र को "नारायण कवच" के लिए "ॐ नमो नारायणाय" मन्त्र दिया।  नारायण कवच की वजह से इंद्र युद्ध में सुरक्षित रहते और देवता फिर से विजयी हो स्वर्ग लौट आये।

एक यज्ञ के दौरान इंद्र ने देखा कि उनके गुरु विश्वदेव, जब "इन्द्राय इदं" या "वरुणाय इदं" कह कर हवि चढ़ानी हो , वहां वे असुरों का नाम लेकर हवि देवताओं के बजाय , असुरों को पहुंचा रहे हैं। इंद्र क्रोधित हुए और भूल ही गए कि ब्रह्मा जी ने उन्हें इस बारे में संयम रखने को कहा था। क्रोध में इंद्र ने तुरंत तलवार उठाई और अपने गुरु विश्वरूप जी के तीनों सर काट दिए।

१. एक सर - जिससे वे सोमरस पीते थे - वह "सोमपीतम"कहलाता था - वह सर सबसे पहले कटा और कपिंजला नामक पक्षी बना (चकोर जैसा एक तीतर partridge )

२. दूसरा सर जिससे वे सुरा पीते थे - वह "सुरापीतम" कहलाता था - वह कलविंगा नामक पक्षी (sparrow) और

३. तीसरा जिससे वे भोजन करते - वह "अन्नदम" कहलाता था और टिट्टिरी नामक पक्षी बना (आम तीतर)

लेकिन विश्वरूप जी की ह्त्या से इंद्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इंद्र ने एक वर्ष इस पाप को उठाया फिर इसे धरती, वृक्षों, स्त्रियों, और जल को बांटने के बदले में इन सभी को एक एक वरदान दिया।

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1. धरती ने जो पाप ग्रहण किया उससे धरा पर रेगिस्तान आये। वरदान पाया कि उसके गड्ढे अपने आप भर जाएंगे।
२. वृक्षों ने पाप का जो हिस्सा लिया उससे यह हुआ कि उन को काटने से उनमे से रस टपकेगा। वरदान पाया कि कटी हुई टहनियां आदि दोबारा उग जाएंगी
३. स्त्रियां पाप दोष से रजस्वला होने के समय अशुद्ध हुईं। उसके बदले वे गर्भावस्था में भी गृहस्थ सम्बन्ध बनाने में समर्थ हुईं।
४. जल ने जो पाप का हिस्सा लिया उससे जल पर अशुद्धि रूपक झाग जमा होता है। वरदान हुआ कि जल जिसमे मिलाया जाए उसे बढा देगा(जैसे दूध))

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अपने पुत्र विश्वरूप की इंद्र द्वारा की गयी पापपूर्ण हत्या से क्रोधित हो कर त्वष्ठा जी ने एक यज्ञ किया और "इन्द्रशत्रु प्रकट हो" के शब्द के साथ एक विशालकाय असुर प्रकट हुआ। यही त्वष्ठा जी का पुत्र वृट कहलाया, और वृटासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। देवता भयभीत हुए और नारायण की शरण में गए। स्तुति करते हुए देवताओं ने मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार , नरसिंहावतार, और वामनावतार की प्रार्थनाएं गायीं। तब पहले उनके हृदय में, और फिर उनके सम्मुख श्री हरि प्रकट हुए। प्रभु सोलह कलाओं, शंख , चक्र, स्फटिक मणि और श्रीवत्स सहित अति शोभायमान होते थे। देवता उनके चरणों में गिरे और उपासना की। उनसे उपाय माँगा। श्री मधुसूदन बोले :

हे देवताओं ! भक्ति सिर्फ हमारे प्रति प्रेम से की जानी चाहिए, कुछ पाने के लोभ से प्रार्थना करना कृपणता कहलाता है। हमें प्रसन्न करने से सब कुछ सुलभ होता है किन्तु हमारी आराधना सांसारिक लाभ के लिए करना मूर्खता है, और ऐसी मूर्खतापूर्ण भक्ति वाले भक्त नहीं , पाखंडी होते हैं, और ऐसे मूर्खों की सांसारिक इच्छाएँ पूरी करना उनके आराध्य को भी मूर्ख ही दिखायेगा। जैसे चिकित्सक बीमार को उस बीमार की इच्छा के कारण वह भोजन नहीं दे देता जो वह खाना चाहता है, बल्कि वही जो उसके लिये अच्छा है, इसी तरह आराधना करने वाले उसकी सांसारिक कामनाओं की अपेक्षा उसके लिए जो अच्छा हो वह देना ही आराध्य को शोभा देता है। हे माघवन (इंद्र) आप हमसे सहायता न मांगें। आप अथर्व जी के पुत्र दधीचि जी के पास जाएँ। उन्होंने तप आदि से अपने शरीर को वज्र सा बनाया है। आप उनसे उनकी अस्थियां मांगें और उन अस्थियों से विश्वकर्मा जी वज्र बनाएं। सिर्फ उसी वज्र से वृटासुर का वध होगा।

तब देवतागण दधीचि जी की शरण में गए और उनसे (बहुत शर्मिन्दा होते हुए) उनकी अस्थियां मांगी। दधीचि जी बोले - हे देवेन्द्र, हर जीव अपने जीवन से प्रेम करता है और मैं भी जीने की कामना रखता हूँ। आप मुझसे मेरा जीवन मांगते हैं ? क्या यह देवेन्द्र को शोभा देता है ? तब इंद्र ने अत्यंत विनम्रता से कहा कि हे ब्राह्मण ! आप जैसे महात्मा परसुख के लिए अपने प्राण तक देने में नहीं झिझकते।  हमारे पास इसके अलावा कोई राह नहीं।  तब दधीचि जी ने कहा कि यदि व्यक्ति को संसार के भले के लिए अपना सर्वस्व भी देना पड़े, तो देना चाहिए। आप लोग मेरी अस्थियां लेना चाहते हैं तो मैं समाधि ले लेता हूँ। तब दधीचि जी ने समाधि ले ली और अपना शरीर त्याग दिया। इनके अस्थियों से बना वज्र लेकर इंद्र सेना सहित ऐरावत पर सवार हो कर चले।

सतयुग के अंत और त्रेता के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के किनारे भयंकर देवासुर संग्राम हुआ जिसमे एक ओर इंद्र थे तो दूसरी ओर वृटासुर।  इंद्र के साथ सभी देवता,अनेक रूद्र, मारुत, आदित्यपिटर, विश्वदेव, ऋभु, आदि थे तो उधर असुरों की सेना में दैत्य, यक्ष, राक्षस, आदि थे जिनका नेतृत्व माली , सुमाली, नामची, ऋषभासुर , हयग्रीव (यह हयग्रीव विष्णु जी के अवतार हयग्रीव से अलग है) आदि कर रहे थे। युद्ध में असुर भागने लगे तब वृटासुर ने उन्हें वापस बुलाया और ज्ञान का पाठ समझाया:

मुझे सुनो, हे असुरों!! जो एक बार जन्म लेता है, वह अवश्य ही मृत्यु को भी प्राप्त होता है !! जब यह अटल सत्य है, जब तुम सब यह जानते ही हो किएक न एक दिन मृत्यु का सामना करना ही है, तो तुम लोग कभी भी रुक कर मृत्यु के विषय में क्यों नहीं विचार करते? अपरिहार्य मृत्यु यदि ऐसे सम्मानजनक तरीके से आये और उच्च लोकों में स्थान दिलाये, तो क्या वह अवांछनीय से वांछनीय नहीं हो जायेगी ? योगस्थित हो कर शरीर त्यागना और युद्धभूमि में प्राणों की आहुति देना, ये दोनों ही दुर्लभ हैं।  यह सौभाग्य बहुत काम लोगों को प्राप्त होता है, इससे डरो मत।  इसका स्वागत करो। 

लेकिन असुरों ने उनकी बात न सुनी और भागते रहे। 

तब वृटासुर देवताओं की  और क्रोध से बोले - इन भयाक्रांत हो कर भागते हुए सैनिकों को परेशान करना आप लोगों के लिए अशोभनीय है।  आप यदि वीर हैं तो मुझसे युद्ध कीजिये। उसकी भयंकर दहाड़ ने देवताओं में भय पैदा कर दिया।  वह अकेला ही देवताओं पर चढ़ दौड़ा और उनकी सेना को नष्ट करने लगा।  तब इंद्र ऐरावत पर बैठे उसकी तरफ लपके और वृट ने ऐरावत को गदा मारी जिससे वह लड़खड़ा गया।  वृट इंद्र को सम्बोधित कर बोले : हे पापी इंद्र - तुम ने अधर्मपूर्वक मेरे भ्राता की ह्त्या की , जब वे गुरु स्थान पर यज्ञ कर रहे थे।  इस पाप का बदला मैं लूँगा।  मैं मृत्यु से नहीं डरता क्योंकि मर कर मैं श्री प्रभु के पास पहुंचूंगा जो मेरे हृदय में बसते हैं। अपने वज्र का प्रयोग कर मुझ पर हमला करो।  इस वज्र के ही लिए तो तुमने दधीचि जी से पापपूर्वक उनके प्राण मांग लिए।  यह भय त्याग दो कि तुम्हारी गदा की तरह यह भी बेकार जायेगा क्योंकि इसमें दधीचि जी के तप की और स्वयं श्री नारायण के आशीर्वचन की शक्ति है।  भय त्याग कर युद्ध करो। 

इंद्र ने एक असुर से ऐसे शब्दों की अपेक्षा न की थी।  वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर सुन रहे थे।  वृटासुर ने बोलना जारी रखा मैंने अपने हृदय को नारायण के चरणों में स्थापित किया हुआ है।  मृत्यु मेरे लिए इस भौतिक शरीर से मुक्ति भर होगी।  जब प्रभु अपने भक्त से प्रेम करते हैं तो उसे सांसारिक सुख के सागर में नहीं डुबाते , धनसम्पन्न नहीं बनाते। क्योंकि वे कि  धन समृद्धि व्यक्ति को संसार से और बाँध देती है।  व्यक्ति समाज में उच्च स्थान, सम्मान और धन के ही कारण नफरत, भय, मानसिक तनाव , मद, विवाद, और दुःख का शिकार होता है. अहो इंद्र - मेरी बात सुनो।  प्रभु इन सब से अपने प्रिय भक्त को मुक्ति देते हैं।  

सहसा वृटासुर युद्धभूमि को भूल कर नारायण से प्रार्थना में खो गया।  : हे प्रभु - मुझे अपने दास का दास स्वीकार कर लीजिये।  मेरा तन सिर्फ वह कर्म करे जो आपको प्रिय  हों।  मेरी वाणी सिर्फ आपके गीत गाये।  मुझे ध्रुव महाराज की तरह स्थापित नहीं होना, न ब्रह्मा की  तरह होना है।  मुझे धरती का राज्य नहीं चाहिए न स्वर्ग का।  मुझे माया से निकालिये और अपने सेवकों का सेवक बना लीजिये।  मेरी आँखों पर पड़ा माया का पर्दा हटा कर मुझे भवसागर से निकालिये।  

इसके बाद वे फिर से युद्ध करने लगे।  वृटासुर ने इंद्र और उसके ऐरावत पर प्रहार किया जिससे इंद्र के हाथों से वज्र गिर पड़ा।  शत्रु के आगे झुक कर उठाने में इंद्र को शर्मिंदगी लगी और वे नहीं झुके।  तब वृट ने कहा - यह सब सोचने का यह समय नहीं। क्या तुमने कभी कठपुतलियों का खेल नहीं देखा ? काठ की बनी मानव आकृतियां आपस में वैसे ही आचरण करती हैं जैसे उन्हें धागों से कराया जाता है।  हम भी उसी तरह विधाता की कठपुतलियां हैं।  हमें अपनी अपनी भूमिका निभानी है। आत्मज्ञानी जानते हैं की सतो, रजो और तमोगुणों की रस्सियों से बंधे हम आचरण करते हैं।  द्वैत में मत पदो और अपना कर्म करो।  वज्र  लेकर मुझ पर प्रहार करो। तब इंद्र ने कहा कि आप तो सिद्ध हैं, आप असुर होते हुए भी रजोगुण या तमोगुण से प्रभावित नहीं।  आप सात्विक हैं और आपका मन प्रभु में विलीन हो चूका है।  मैं आपको प्रणाम करता हूँ। 

तब दोनों ने अपना युद्ध पुनः आरम्भ किया।  दोनों में भयंकर युद्ध हुआ , जिसमे इंद्र ने वज्र से असुर की दोनों भुजाएं काट दीं।  तब वृटासुर ने मुख बहुत बड़ा खोल कर इंद्र को निगल लिया था।  किन्तु विश्वरूप जी के दिए नारायण कवच की वजह से इंद्र को कुछ नहीं हुआ और वे असुर का पेट को चीर कर बाहर आ गए।  तदोपरांत इंद्र ने असुर का सर काट दिया।  असुर के शरीर से लौ निकली और नारायण चरणों में विलीन हो गयी। 

किन्तु ब्रह्महत्या का पाप इंद्र का पीछा करने लगा।  पिछली बार अपना पाप धरती , जल, स्त्रियों और वृक्षों में बाँट चुके इंद्र के पास अब कोई उपाय न था।  ऋषियों ने उन्हें कहा था कि यज्ञ करा कर वे इस पाप का प्रायश्चित कराएंगे किन्तु इंद्र के पीछे लगी ब्रह्महत्या भयावह वेग और जलन से उनका पीछा कर रही थी और इंद्र को कहीं शरण न मिल रही थी।  इंद्र जहां जाते ब्रह्महत्या उनका पीछा करती।  वे जान गए कि तपस के अलावा कोई उपाय अब काम न आएगा।  तब इंद्र मानसरोवर में एक कमल की डंठल में छिपे , मानसरोवर लक्ष्मी जी द्वारा रक्षित होने से ब्रह्महत्या वहां प्रवेश न कर सकी और इंद्र ने एक हज़ार वर्षों तक वहीं तप किया और इस पाप का प्रायश्चित किया। इस एक वर्ष तक इंद्र अपने लिए यज्ञों में अर्पित हवि को स्वीकार नहीं कर सकते थे।  इस अवधि में (पुरुरवा और प्रभा जी के पुत्र) राजा नहुष इंद्र के स्थान पर स्वर्गाधिपति बने। किन्तु नहुष शचीदेवी को पत्नी रूप में पाने के लिए लालायित हुए जिसके परिणामस्वरूप उन्हें ब्राह्मणों के श्राप से अजगर बनना पड़ा।बाद में लौट कर इंद्र ने अश्वमेध यज्ञ करवाया।  

परीक्षित जी बोले -  मुझे एक दुविधा है।  वृट तो एक भयंकर असुर था जो जन्मा ही इंद्र का शत्रु हो कर था।  फिर उसके मुंह से ऐसी ब्रह्मज्ञान की बातें कैसे निकलीं ? तब शुकदेव जी ने वह कथा कही। 

जारी ……

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