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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता २.१

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ॥
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाचमधुसूदनः ॥१॥

संजय उवाच संजय ने कहा

संजय बोले - उस परेशान अर्जुन को, जो आँखों में आंसू भरे, और करुणा, दुःख और व्यग्रता से भरा था , श्री मधुसूदन कृष्ण ने यह वाक्य कहे |

गीता का दूसरा अध्याय पूरी गीता का निचोड़ जैसा है | करीब दस दस श्लोक हर एक अध्याय को समझाते हैं | पहले दस श्लोक अर्जुन की व्यथित मनोदशा और उसके कारणों के बारे में हैं | वह देखता है कि उसके प्रिय - अतिप्रिय और अपने लोग ही दोनों ही ओर से युद्ध में खड़े हैं | वह दोनों ओर के लोगों से सच्चा प्रेम करता है | उसे डर है ( जो सच ही है ) कि यदि युद्ध हुआ तो वह इन प्रिय जनों में से अनेकों को खो देगा | वह संदेहों से घिर जाता है - कि क्या यह युद्ध करने योग्य है भी ? जो खो जाने वाला है - उसके प्रतिफल के रूप में क्या कोई भी चीज़ काफी हो सकती है ? सोचिये - स्वयं को अर्जुन की जगह रख कर - अपने भाई, परदादा, गुरु - इन सब की मृत्यु के एवज़ में यदि कितना ही बड़ा साम्राज्य मिले - क्या वह सुख देगा ? (अर्जुन जैसे व्यक्ति के लिए - दूसरे की विचारधारा से नहीं)

याद रखने की बात है कि पांडवों की शत्रुता सिर्फ दुर्योधन और दु:शासन से है - बाकी के ९८ कौरव भाई उनके शत्रु नहीं थे | कुछ से तो लगाव रहा ही होगा - कि सारे भाई एक साथ खेल कूद कर एक साथ बड़े हुए थे | ना ही उनकी शत्रुता है भीष्म और द्रोण और कृपाचार्य से - जो उस तरफ हैं - और युद्ध का अर्थ होगा उन्हें मार देना - | ना सिर्फ यह कि वे मारे जायेंगे युद्ध में - बल्कि यह कि - अर्जुन अच्छी तरह जानता था कि भीष्म को मारना मेरे अलावा किसी और के बस में नहीं - उन्हें यदि कोई मारेगा - तो मैं खुद ही मारूंगा - और वह भीष्म से अत्यधिक प्रेम करता था - और वे भी उससे उतना ही प्रेम करते थे | तो अर्जुन परेशान था - और युद्ध छोड़ देना चाहता था |

अब कई लोग कहते हैं कि - यदि कृष्ण सच मुच शान्ति चाहते थे (वे युद्ध के पहले शान्ति-दूत बने थे ) तो वे अर्जुन को इस पल पर युद्ध छोड़ देने देते - तो खून खराबे से बचा जा सकता था | मैं ऐसा नहीं समझती कि यह सही होता |

पहली बात : ईश्वर ना युद्ध की ओर हैं - ना शान्ति की ओर | वे अनगिनत संसारों की रचना करते ही रहते हैं - और विनाश भी | वे जानते हैं कि यह खूनखराबा सच में नहीं हो रहा - ना किसी की मृत्यु ही हो रही है | जिस तरह से हम जब एक फिल्म या नाटक का खेल देखते हैं , और यदि उसमे हीरो मर जाता है - तब भी हम जानते हैं कि वह कलाकार जो हीरो बना हुआ था, वह मरा नहीं है - जीवित है - और यह सिर्फ खेल है | इसका अर्थ यह नहीं कि हम भ्रमित होकर उदास नहीं होते | जब "मुक़द्दर का सिकंदर " में अमिताभ मर जाए , या, शाहरुख़ "देवदास" में मर जाए - तो हम जानते हैं कि वह असली जीवन में जीवित है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम कुछ देर के लिए उदास नहीं हो जाते इस जगह - वह इसलिए कि हम उस फिल्म के मूड से जुड़े होते हैं उस वक़्त | इसी तरह जब भीष्म , अभिमन्यु आदि की मृत्यु होती है , तो कुछ देर कृष्ण भी उदास होते हैं - लेकिन वे जानते हैं कि फिल्म में किस पल किसकी कैसे मृत्यु होने वाली है - और इस के बाद वह व्यक्ति किस रूप में और किस फिल्म में क्या बन कर आएगा | तो उनके लिए मृत्यु वह आखरी मंजिल नहीं है जो हमारे लिए है | उनके लिए वह सिर्फ एक निकास है - एक द्वार जिससे होकर कलाकार एक दृश्य पटल से निकल कर दूसरे दृश्य पटल में प्रवेश करेगा |

सोचिये कि दो मित्र एक सड़क पर हैं , जो पेड़ों से घिरी है | आगे पीछे मोड हैं - तो आगे रास्ता नहीं दिखता | एक मित्र पेड़ पर चढ़ जाए - तो आगे देख सकता है | वह कहे आगे बैलगाड़ी आ रही है - तो वह सत्य कह रहा है | और जो व्यक्ति भूमि पर खड़ा है वह कहे कि हम सब से जुदा हो गए हैं और अभी नितांत अकेले हैं, तो वह भी अपनी जगह सच ही कह रहा है | फर्क है उनकी स्थिति में, उनके ज्ञान की सीमा में |

इसलिए कृष्ण - जो ज्ञान की परिसीमा से भी परे हैं - वे हंस सकते हैं अर्जुन के भावों पर - क्योंकि उन्हें मोड के उस तरफ की बैलगाड़ी दिखती है |

एक और बात मैं आपसे पूछूंगी - उनसे - जो कहते हैं कि यह युद्ध रोका जाना चाहिए था - जिससे लोग ना मरते | मैं आपसे पूछती हूँ - यदि यह युद्ध ना हुआ होता - तो क्या उस युद्ध में जो लोग मारे गए - वे आज तक जीवित होते? हमारे साथ होते? नहीं - अपने समय पर जाते ही - और कृष्ण जानते थे कि वह काल अभी है - ऐसे नहीं तो वैसे उन्हें उस वक्त जाना ही था - उन्होंने अर्जुन से कहा भी - "इन सब को मैं (काल के रूप में ) पहले ही मार चूका हूँ - तू मारे या ना मारे - यह अपने समय पर मरेंगे ही|" तेरे लिए इनकी मृत्यु भविष्य है किन्तु मेरे लिए वह सब वर्त्तमान है - क्योंकि मैं समय से परे हूँ |

इसलिए जब कृष्ण देखते हैं कि अर्जुन मोहित हो रहा है (जैसा वे पहले ही जानते थे कि होने वाला है) तो वे उसे समझाते हैं | यह हम अगली पोस्ट में डिस्कस करेंगे |

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जारी

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disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही

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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ। मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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